Friday, December 6, 2013

मेरी बालकनी...

सुन जाती है कोई दूर की हरकत,
साँसें भी पा लेती हैं, एक अलग ही फुरसत।
असीम सा लगने लगता है जहाँ कुछ इस तरह,
कि अनगिनत घरों की रौशनी करने लगती है मन में गर्मी की बरकत।
सोच में भी घुल जाता है सुकून,
और यादों की कड़वाहट कट के गिर जाती है सभी।
हवा पे बैठा एक गीत पकड़ लेता है जुनून,
और आँखों में मुस्कुराहट झट से फिर आती है तभी।

कुछ देर में...

पड़ोस में पक रही दाल की खुश्बू, दबे पाओं आ कर,
एक सुरूर सा देती है जगा।
और मन में पक रहे खयालों को,
धक्का मार कर देती है भगा।
मुंडेर पर रख कर हाथ, एक याद दबा लेता हूँ फिर,
अंदर उठती एक कंपन को, खुदी में छुपा लेता हूँ फिर।
तेज़ी से पनपता पसीना पल में हवा तो हो जाता है,
पर पास सूखते कपड़ों से झड़ता पानी जाने कैसे आँखों में चला आता है।
समझ लेता हूँ फिर, बेवकूफ बनाने में खुदको, उस्तादी कभी रही नहीं...
और येह छोटी सी अनजान बालकनी, उस पल से अजनबी नहीं रही...

-पीयूष 'दीवाना' दीवान








2 comments:

  1. बहोत खुब! मै ईसे हीन्दी फोरम में आपके नाम से पेश कर सकता हुं?

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    1. Dhanyavaad! Bilkul aap isko kahin bhi pesh kar sakte hai :)

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