Tuesday, December 17, 2013

Inconsolable nature's (and a Broken man's) lament...

It is one year since the day 'Jyoti Singh Pandey' was violated and ravaged by some bestial elements of our society. On that wretched night, 'nirbhaya' had a companion who saw it all happen. Today, more than anything else, my thoughts also go out to that broken man, and all that he represents. This attempt is the nature's lament, as it witnesses the 'evolution' of man, and parallel to that a fictionalized expression of grief connoting that very broken man, who on that day, in some ways, was as much a victim as the girl was.

The lowest ebb of a slow moving, cluttered, river
(The uncertain chills of an unannounced shiver)
The almost barren branch that watches its dry leaves take forever to fall, and kiss the ground
(The word that garners shape with much struggle, but comes out without a sound)
The conquered hill that has a shadow cast all over it as the evening sun goes to sleep
(The heavy eyes and their brooding shadow when the heart starts to weep)
The frantic chirping of a bird after it finds its eggs stolen
(The searing pain that hides itself in the piths of the colon)
The disapproving stares of the stars, that filter through the smog and the smoke
(The uneasiness that emanates from the belly, moving upwards seeming to choke)
The crustiness of the wind ridden by dust and grime
(The sweating on the palms that doesn’t cease with time)
The soil that refuses to engender life, reacting to the drugs it has been fed
(The ugliness of an injury, whose skin has long been dead)
The winters that shrink, like the clothes do, as years pass by
(The unremarkable feeling of loss that doesn’t evaporate, however earnest be the try)
The bawling of the tree’s trunk when it’s felled
(The feverish anxiety of a failing dream that refuses to be repelled)
The mountain boulders that take to retribution, on the roads lacerating its soul
(The pounding knocks, of distress and ache, that take a heavy toll)
Inconsolable all of them yes…
(But not as much as his feeling of watching her being defiled and crushed, signalling a social abyss…)
God’s gifts all of them, with memories that would needle and knead
(And his gift that would not return, however heart-wrenching be the plead)

- Piyush Dewan

Friday, December 6, 2013

मेरी बालकनी...

सुन जाती है कोई दूर की हरकत,
साँसें भी पा लेती हैं, एक अलग ही फुरसत।
असीम सा लगने लगता है जहाँ कुछ इस तरह,
कि अनगिनत घरों की रौशनी करने लगती है मन में गर्मी की बरकत।
सोच में भी घुल जाता है सुकून,
और यादों की कड़वाहट कट के गिर जाती है सभी।
हवा पे बैठा एक गीत पकड़ लेता है जुनून,
और आँखों में मुस्कुराहट झट से फिर आती है तभी।

कुछ देर में...

पड़ोस में पक रही दाल की खुश्बू, दबे पाओं आ कर,
एक सुरूर सा देती है जगा।
और मन में पक रहे खयालों को,
धक्का मार कर देती है भगा।
मुंडेर पर रख कर हाथ, एक याद दबा लेता हूँ फिर,
अंदर उठती एक कंपन को, खुदी में छुपा लेता हूँ फिर।
तेज़ी से पनपता पसीना पल में हवा तो हो जाता है,
पर पास सूखते कपड़ों से झड़ता पानी जाने कैसे आँखों में चला आता है।
समझ लेता हूँ फिर, बेवकूफ बनाने में खुदको, उस्तादी कभी रही नहीं...
और येह छोटी सी अनजान बालकनी, उस पल से अजनबी नहीं रही...

-पीयूष 'दीवाना' दीवान








Saturday, November 23, 2013

क्या इसलिये? ...

This effort is inspired from my impressions about a very aged husband-wife pair, with whom I shared an Auto ride recently. This couple, withered by hardships, and dwarfed by the ill-wills of age, seemed very much in love, even after all these years...



परछाई तेरी मेरी, मिलीं थी गले आगे बढ़ कर,

क्या इसलिये हम दोनों की आँखों में, चमक कर गयी थी घर?


बातें भी दोनों की, जल्दबाज़ी में घुलती-मिलती, गयी थी संवर,

क्या इसलिये कि उनका खत्म होने का नहीं था डर?


साँसें, घूमती-घामती पतली बेलों सीं, लिपट रही थी एक दूजे पर,

क्या इसलिये वो जा रही थी, हवा में हंसते हुए बिखर?


घबराहट दोनों की घेरा बना ली थी चारों ओर हमारे, हाथ पकड़ कर,

क्या इसलिये कि दबे अरमान अब तेज़ी से, चढ़ने लगे थे शिखर?


तराश रही थी एक दूसरे को, हमारी लड़खड़ाती हुई नज़र,

क्या इसलिये शिल् कला सा सजने लगा था, हमारा आने वाला सफर?


खो गये थे हम, भूल कर विधि की सोची हुई डगर,

क्या इसलिये, हम भांप ना पाए, तेज़ी से पास बढ़ता भंवर?


कुछ ही देर में आया तूफान और मच गया कहर,

क्या इसलिये हमें खलने लगी थी दुनिया, चुभने लगा था शहर?


साथ ही रहे हम, भूल कर बरसता पानी और बादलों की गरजती मेहर,

क्या इसलिये कि उम्मीद थी होगी जल्द ही नई सेहर?


सहलाते गये एक दूसरे कि आँखों को, जो बेहते-बेहते हो गयी थी बंजर,

क्या इसलिये कि विश्वास था बुरा वक़्त जायेगा गुजर?


एक दूजे के सर पर हाथ रखे, बचाते रहे ओलों से अपने सपनों का नगर,

क्या इसलिये धीरे धीरे छटने लगे बादल, और ओझल होता रहा गदर?


झूझ गये सब, एक दूसरे कि बाहों में, ज़ाया ना गया हमारा सबर,

क्या इसलिये हर मौसम में, साथ हमारा रहा अमर?


-पीयूष 'दीवाना' दीवान  


Thursday, November 14, 2013

Woh 22 bade kadam, kuch saal pehle ke...


वह २२ बड़े कदम, कुछ साल पहले के,
जो २ छोटे पेड़ों के बीच समा जाते थे...
याद आये तो चल दिया उस मैदान की ओर यूं हीं,
जहां बचपन में, स्कूल का बस्ता बिस्तर पर फेंकते ही, हम चले आते थे...

पहुंचने से पहले वहां लेकिन,
साथी जमा करना नहीं समझा अब ज़रूरी...
पेहले जैसे घरों के नीचे खड़े हो कर,
नामों की चीखें लगाने की, मन ने ना दी मंज़ूरी...

अब तो जेबों से, किरमिच की गेंद भी हो गयी थी गोल,
बदले में आ गया था एक बटुआ, ताक़त थी जिसमें की ढेरों गेंद ले खरीद,
पर जिन्हें मिलते ही, जहां में, बजने लगते थे ढोल,
उन मशक्कत से मिले २० रूपों की खुश्बू की ना थी रसीद...

निकलने से पहले घर से, जब अपने कीमती जूते डाल रहा था पैरों में,
तो आ गयी याद वह जूते निकाल कर नंगे पैर भागने की आदत,
जो एक रिश्ता सा बाँध देती थी गैरों में...

इसी तरह एक एक पुरानी याद की तय खोल कर,
अपनी चमचमाती गाड़ी की गद्दी पर बाजू रखता रहा...
आज और बचपन के फलसफों के बीच,
मन-घड़ंत एक तराज़ू रखता रहा...

एक पल ही बीता पहुंचने में उस मैदान के द्वारे,
और एक पल भी ना बीता मुझे उस मंज़र की ताज़गी को निहारे,
कि दौड़ पड़े कदम और लाँघ गये,
उस तीन फुट कि भूरी दीवार के बीच लोहे कि छोटी सी रुकावट को,
आंख हो गयी बंद और चल पड़ा मैं उन २ पेड़ों की तरफ,
भूल कर, हवा में गयी, बदलाव की मिलावट को...

दक्षिण वाले पेड़ की छाओं पड़ी, जब सर पर,
हांफ लिया थोड़ा सा, तने पर रखे एक हाथ...
नज़र को चारों ओर घुमाते  हुए,
दायें कंधे में हो रही हरकत के साथ...

मुस्कान आ गयी चेहरे पर,
और आगे देखते हुए पीछे की ओर चलने लगा मैं...
कुछ फासला बढ़ गया उस पेड़ और मुझ में दोबारा जब, 
झुका ज़रा से, और फिर ज़ोरों से उसकी ओर उड़ने लगा मैं...

कदम पड़े जैसे ही, उसी दक्षिण के पेड़ की आगोश में फिर से,
एक छलांग लगा दी दायां हाथ पुरज़ोर घुमाते हुए,
हवा के गोले को उंगलियों के बीच से,
सामने २२ कदम दूर दूसरे पेड़ की ओर बढ़ाते हुए...

थोड़ा लड़खड़ा के थम गया,
हाथ दोनों घुटनों पर रख, वहीं कुछ पल जम गया...
एक गिनती हो जाये फिर, मन को गया सूझ,
दोनों पेड़ के बीच चल पड़ा, परछाई की आंख-मिचोली को बूझ,
पहुंचा जब दूसरी तरफ,
अचंभा हुआ काफी, बात के ज़ाहिर सा होने के बावजूद,
२२ बड़े कदमों में से पहले के, सिर्फ सोलाह का ही देख कर वजूद...

-पीयूष 'दीवाना' दीवान