Thursday, November 7, 2013

Tasveer

Someone told me recently that poetry, which doesn't talk about the matters of the heart, is futile. I didn't agree with the statement, but decided not to argue. Then later, another friend too made a very similar remark. So I have been forced to chuck, for once, the introspective melancholy that has haunted my last 2-3 posts, and attempt a prose that hopefully falls under the 'romantic' genre.


हाथ बढ़ाया था आगे तुमने
और नब्ज़ तुम्हारी से धड़कन मेरी जुड़ सी गई थी...
नज़रों ने कुछ ऐसे कैद कर लिया था उस लम्हे को
की कलाई पर तुम्हारी घड़ी की सुई भी रुक सी गई थी...
देख रही थी तुम मुझे आने वाले कल की आँखों से,
सांसे थमी थी दोनों की, और पलकें तुम्हारी झुक सी गई थी...

हाथ मेरा मचल रहा था, हवा में आगे गोता लगाने को,
और सामने राह देखते साथी के आगोश में जा कर समाने को...
ना जाने क्यूं फिर उंगलियाँ मेरी हथेली से कस गई,
और आगे बढ़ने की ख्वाहिश उस कसी हुई मुट्ठी में फंस गयी...
आंख मिलानी चाही थी तुमसे पर कर ना सका था वह मैं,
और कुछ हुआ यूं कि आगे बढ़े तुम्हारे हाथ की लकीरों में, मेरी नज़रों की दुनिया बस गई...

बड़ी-छोटी उन रेखाओं के विचित्र जाले में,
लाली तुम्हारी देख रहा था...
ठंडे पड़े तुम्हारे नर्म हाथ की गर्मी से,
चोर नज़रों को अपनी सेक रहा था...

फिर उस पल को खिंचता देख हाथ तुम्हारा भी जान गया,
कंपन की बढ़ती तेज़ी को, हिचकिचाहट की गवाही मान गया...
हवा में एकदम बढ़ गये भारीपन में,
धीरे-धीरे रुख अपना उसने मोड लिया...
लकीरों ने उसकी कुछ इशारा किया उसे और,
इरादों की दुनिया से नाता तुमने तोड़ लिया...
सकपका गया मैं, तुम्हें हाथ अपना यूं वापस लेते देख,
और गलती से नज़रों ने तुम्हारी नज़र से अनचाहा संपर्क जोड़ लिया...

हैरत हुई काफी मुझे तुम्हारी मुस्कुराहट का एहसास होते ही,
एहसास भी ऐसा, जैसा होता है ठंडे पानी में चेहरा डुबोते ही...
खिंच गयी तस्वीर उस पल एक ऐसी फिर मन में,
जो हो जाती है रूबरू हूबहू, यादों के जंगल में खोते ही...

-पीयूष 'दीवाना' दीवान   

Disclaimer: All the work on this blog is fiction. Part inspired from the author's own life maybe, part inspired from others- but all of it is highly exaggerated to create a good poetic impression. In no ways should any of the stuff posted here be inferred to hint towards the author's own life, or his frame of mind.
 


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